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कविता

धरती नाश्ते की प्लेट है

रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति


पूरी धरती नाश्ते की प्लेट है
जिसे सूरज की प्रेमिका सुबह ने सजाया है
आज सूरज और मैं दोनों बैठे हैं बहुत दिनों बाद

धूप का डोसा बनाया है
और सुबह की ठंडक से नारियल की चटनी
झीलों की कटोरी में भर दिया मीठे पानी का सांभर

नीबू के बागों से उधार लेकर अचार बना दिया
आलू और गेहूँ के खेत उठाकर समोसे बना दिए
हरी मूँग के मंगोड़े तल दिए
धनिया मिर्च के खेतों से चटनी लगा दी
जहाँ तहाँ उगी राई से बघार लगा दिया
ताजे जंगली सोतों का पानी भरा है

जो कुछ भी बन रहा है कहीं धरती का हिस्सा है
ये धरती नाश्ते की प्लेट है
जिसे पैक्ड फूड की तरह खरीदा नहीं जा सकता
मेरी दादी नमन करती है भोजन के एक कण के लिए
मुझे इसकी कीमत का अहसास हो रहा है


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